Wednesday, May 29, 2013

लिख के कोई क्या समझाएं...?


कविता

लिख के  कोई क्या समझाएं...?
-    सुशील यादव
 
 मन तपा हर पल यादों में, छूकर देखो इन अंगारों को
हरा –भरा है बाग़ –बगीचा
अंतस की सूखी खेती है
हाथों से बस उम्रर  फिसलती
मुठ्ठी –भर सांस की रेती है ...
दर्प –चुभा हर –पल सुई सा, क्या उड़ायें गुब्बारों को
 
लिख के कोई क्या समझाएं
मन की बात अधूरी लगती
सम्बन्धों में दरार हो जैसे
टूटी  हुई सी धूरी लगती ...
समझा - समझा के हार गए, संयम के पहरेदारों को

Tuesday, May 28, 2013

इन हत्याओं पर आंसू मत बहाइए, संकल्प लीजिए

तर्क और बहानों से आगे बढ़ने का समय
इन हत्याओं पर आंसू मत बहाइए, संकल्प लीजिए
 
-संजय द्विवेदी
 
  माओवादी आतंकवाद के विकृत स्वरूप पर बौद्धिक विमर्शों का समय अब निकल गया है। आईएसआई, कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों, नेपाल के माओवादियों और बंग्लादेश के रास्ते जाली करेंसी, अवैध हथियार लेने वाले इन नरभक्षियों के दिखावटी जनयुद्ध की बकवास पर चोंचें लड़ाने के बजाए इस आतंकी अभियान से निर्णायक जंग लड़ने का समय अब आ गया है। बस्तर के सुकमा जिले की दरभा घाटी में शनिवार की शाम माओवादियों ने जो कुछ किया अब उसके बाद हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र को समझ लेना चाहिए कि भ्रष्ट राजनीति और निकम्मी नौकरशाही की सीमाएं क्या हैं। लोकतंत्र को बचाने के लिए हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है उसकी यह एक मिसाल है।
   नीचता और मनोविकारी विचारधारा के पोषक माओवादियों ने जिस अंदाज में समर्पण करने के बाद पूर्व सांसद महेंद्र कर्मा और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल व उनके बेटे की हत्या की, वह उनके वहशीपन को उजागर करने के लिए काफी है। ऐसे लोगों के लिए टीवी चैनलों पर कुछ भगवाधारी और कथित बुद्धिजीवी कैसे तर्क दे रहे हैं कि उन्हें सुनना भी पाप है। नक्सली तो यही चाहते हैं कि सरकारी और सियासी तंत्र उनके इलाकों से दूर रहे और वे मनचाहा जंगल राज चलाते रहें।
नासूर बना माओवादः
  आज जबकि माओवाद एक नासूर के रूप में देश की रगों में फैल रहा है, देश के 17 राज्य और 200 जिले इसकी चपेट में हैं, हमें यह सोचना चाहिए कि आखिर इस जंग में कौन जीतेगा? क्या भारतीय राज्य ने इन नरभक्षियों के आगे समर्पण कर दिया है? अगर कर दिया है तो किस मुंह से हम सुपरपावर होने के नारे दे रहे हैं? यही समय है कि हम इस संकट को इसके सही अर्थ में पहचानें और उसके त्रिस्तरीय समाधान के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाएं। इस समस्या से सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और कानून-व्यवस्था तीनों मोर्चों पर लड़ना होगा। हमें उन लोगों की भी पहचान करनी होगी जो माओवादियों को विचारधारात्मक आधार पर मदद कर रहे हैं। शहरों में उनके टुकड़ों पर पल रहे कुछ बुद्धिजीवी,पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं का बाना ओढ़कर इस देश के लोकतंत्र को कमजोर करने में लगी ताकतों को भी हमें बेनकाब करना होगा।
कैसे जीत रहे हैं भरोसाः
 यह घोर चिंता का विषय है कि माओवादी किस तरह आम आदिवासियों के बीच अपनी घुसपैठ बना चुके हैं। वे चाहते हैं कि विकास की रोशनी उन तक न पहुंचे। सरकारी तंत्र और राजनीतिक कार्यकर्ता उनके इलाकों तक न जाएं। सुकमा में हुआ हमला इसकी एक नजीर है कि माओवादी चाहते हैं कि कोई राजनीतिक पहल उनके इलाकों में न हो। नंदकुमार पटेल शायद इसलिए उनके एक नए शत्रु बनकर उभरे क्योंकि वे बस्तर इलाके में निरंतर प्रवास करते हुए एक राजनीतिक पहलकदमी को जन्म दे रहे थे। महेंद्र कर्मा से उनकी अदावत तो समझी ही जा सकती है। माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों को सरकारी और सियासी हस्तक्षेप तथा विकास की गतिविधियों से काटकर आदिवासियों के रहनुमा बनना चाहते हैं। यह साधारण नहीं है कि जब कोई ऐसी पहल होती है जिसमें लोग आदिवासियों से संवाद की कोशिशें करते हैं तो माओवादियों में घबराहट फैल जाती है। सलवा जूडूम से लेकर कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के खिलाफ माओवादियों का गुस्सा इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। सलवा जूडूम के कथित अत्याचारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दुनिया भर में हाय-तौबा मचाने वाले मानवाधिकारवादी, उनके वकील और बुद्धिजीवी इस समय कहां हैं। वे माओवादी हिंसा, हिंसा न भवति के सूत्र पर काम करते हैं। वे राज्य की हिंसा पर आसमान उठा लेने वाले माओवादियों की रक्त क्रांति की रूमानियत पर मुग्ध हैं। किंतु अफसोस लड़ने और मारने वालों में उनका कोई परिजन नहीं होता, वरना शायद उनका रोमांटिज्म कुछ टूटता। भय का व्यापार कर रहे माओवादी एक संगठित,सुविचारित, रणनीतिक शैली में काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने लक्ष्य कभी छिपाए नहीं। वे साफ कहते हैं कि वे 2050 में भारतीय राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा कर लेगें। उनके तौर-तरीके गुरिल्ला वार के हैं और अमानवीय हैं। किंतु कुछ लोग किस आधार पर इन नरभक्षियों के मानवाधिकारों की बात करते हैं इसे समझना कठिन ही नहीं, असंभव है। यह मानना होगा कि सामान्य परिस्थियों में जो मानवाधिकार संरक्षित किए जाते हैं, वही युद्ध की परिस्थितियों में नहीं रह जाते। माओवादी इलाके एक असामान्य परिस्थितियों से घिरे हैं। हम जिनके मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं क्या वे मानव रह गए हैं? या हम राक्षसों और नरभक्षियों के लिए मानवाधिकार मांग रहे हैं?
   सच तो यह है कि हम माओवाद को एक राष्ट्रीय समस्या मानकर इसके समाधान के लिए निर्णायक प्रयास प्रारंभ करने के बजाए तू-तू-मैं-मैं में लगे हैं। राजनैतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करने के बजाए ऐसी घटनाओं के भी छुद्र राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिशें करते हैं।
क्या करें राजनीतिक दलः
  राजनीतिक दलों के बारे में देशवासियों की राय अच्छी नहीं है तो इसके लिए वे स्वयं भी जिम्मेदार हैं। इस बात की चर्चाएं आम हैं चुनाव जीतने के अनेक राजनेता माओवादियों की मदद लेते हैं। उनको धन उपलब्ध कराते हैं। अगर यह सच है तो डूब मरने की बात है। किंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आजतक किसी राजनीतिक दल ने उनकी आतंकी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। यानि हिंसा के खिलाफ सभी प्रमुख राजनीतिक दल एक हैं। यह एक आधार है जहां हमें साथ आना चाहिए। एक लोकतंत्र में रहते हुए हम किसी तरह के अतिवादी, आतंकवादी स्वरूप को समाज में स्थापित नहीं होने देंगें। इसे एक वैचारिक संघर्ष मानकर हमें आगे बढ़ना होगा। राजनीतिक दलों को इस आरोप को झुठलाना होगा कि वे माओवादियों का राजनैतिक इस्तेमाल करते आए हैं। आंतरिक सुरक्षा के जानकारों के साथ बैठकर राजनीतिक दलों को एक राष्ट्रीय प्लान बनाना होगा। इस योजना पर लंबी और दीर्धकालिक रणनीति बनाकर अमल करना होगा। किंतु अफसोस यह है कि दिल्ली की यूपीए सरकार अपने ही अंतर्विरोधों से घिरी है, उसमें एक दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव भी दिखता है। ऐसे में चुनाव बाद आने वाली किसी भी सरकार के सामने यह संकल्प स्पष्ट होना चाहिए कि माओवाद को समाप्त करने के लिए वह एक निर्णायक जंग छेंड़ें। क्योंकि उस सरकार के पास समय भी होगा और आत्मविश्वास भी। हमें यह मान लेना चाहिए कि यह समस्या राज्यों के बस की नहीं है। केंद्र और राज्यों का समन्वय बनाकर एक साझा रणनीति ही इसका समाधान है।
राजनीति नहीं समझदारी की जरूरतः
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इस मुद्दे पर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से बातें बनने के बजाए बिगड़ेंगीं। छत्तीसगढ़ में घटी इस घटना के बाद भी इस तरह की राजनीति शुरू की गयी और माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने,वातावरण को बिगाड़ने के जत्न शुरू किए गए। किंतु कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व और राहुल गांधी को इस बात के लिए बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने पूरे मामले को बिगड़ने से बचा लिया। यह भी एक बड़ी बात थी श्री राहुल गांधी शनिवार की रात को ही रायपुर पहुंचे उससे कार्यकर्ताओं को उत्तेजित करने के प्रयासों में लगे कुछ लोगों को निराशा ही हाथ लगी। रविवार सुबह रायपुर पहुंचकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी ने जिस तरह विषय को संभाला उसके लिए कांग्रेस नेतृत्व को बधाई दी जानी चाहिए। दरअसल राष्ट्रीय संकट के समय हमारा यही चरित्र ही हमारी ताकत है। अब राजनीतिक दलों को यह तय करना पड़ेगा कि माओवाद के खात्मे के बिना आप इन इलाकों में विकास नहीं कर सकते। यह घटना एक अवसर भी है हम उस दिशा में बढ़ सकें, क्योंकि हर संकट एक अवसर लेकर भी आता है। राजनीतिक दल अगर इसे पहचान कर इस संकट से उठे प्रश्नों का समाधान ढूंढ सकें तो बड़ी बात होगी।
 
कैसे होगा विकासः
  यह विडंबना ही है कि 11 पंचवर्षीय योजनाएं चलाकर भी हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से की जिंदगी में हम उजाला नहीं ला सके। गरीबी आज भी बनी हुयी है। नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासियों और निर्बल लोगों के हिस्से और अँधेरा परोसा है। हमें सोचना होगा कि जनजातियों में इतना आक्रोश क्यों है? क्योंकि यह आक्रोश अकारण भी नहीं है। आज जनजातियों को यह लगता है कि पटवारी से लेकर कलेक्टर तक सब उसके जल, जंगल और जमीन को हड़पने के लिए आमादा हैं। इस भावना को कैसे तिरोहित किया जा सकता है, इस पर विमर्श की जरूरत है। यह तंत्र जिसको भ्रष्टाचार का दीमक लगातार चाट रहा है कैसे यह भरोसा दिला पाएगा कि वह जनजातियों और कमजोर लोगों के साथ है? विकास के प्रकल्पों और उद्योग-धंधों के नाम पर देश में 6 करोड़ लोग विस्थापित हो चुके हैं। इन जमीन से उखड़े हुए लोगों के लिए हमारे पास क्या समाधान है? जाहिर तौर पर व्यवस्था के प्रति नाराजगी काफी गहरी है और ये स्थितियां आतंकी माओवादियों के जड़ें जमाने में मददगार हैं। आज हालात यह हैं कि सरकारी तंत्र चाहे भी तो माओवादी आतंक के चलते इन इलाकों में विकास के काम नहीं कर सकता। इसलिए जरूरी है कि हम इलाकों को पहले माओवादियों से खाली कराएं, उन पर भारतीय राज्य का कब्जा हो और तब विकास व सृजन की बात हो पाएगी। सही मायने में यह समस्या एक विचार से जुड़े लोगों की सोची- समझी साजिश तो है ही, साथ ही कुशासन और भ्रष्टाचार इसे बढाने का काम कर रहे हैं। यह हमारी आंतरिक समस्या है जो हमारे कुशासन, निकम्मेपन, लालचों, रक्त में घुस चुके भ्रष्टाचार के चलते ही गहरी हुयी है। नक्सली भी इसी भ्रष्टाचार के सहारे फल-फूल रहे हैं। वरन क्या कारण है कि उन तक विदेशी हथियार, अत्याधुनिक तकनीक और खान-पान का सामान आसानी से पहुंच रहा है। हमारे ही नेताओं, अधिकारियों, पूंजीपतियों की मदद से वे अपना कथित जनयुद्ध चला रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में वे 600 करोड़ की लेवी सालाना वसूल रहे हैं और इस पैसे से भारतीय नागरिकों की ही बलि ले रहे हैं। यह कहने में संकोच नहीं है कि माओवादी लेवी वसूली, अपहरण, महिलाओं का शोषण, आदिवासियों के विकास के विरोधी, भारतीय राज्य के शत्रु, अवैध हथियारों के तस्कर और अत्याचार का दूसरा नाम हैं। ऐसे लोगों के प्रति सहानुभूति के बोल रहे लोग क्या देश के शत्रु नहीं हैं? जिनकी इस लोकतंत्र में सांसें घुट रही हैं वे क्या कथित माओवादी राज में चैन ले सकेंगें? सच तो यह है कि माओवादी राज किसी भी बुरे से बुरे लोकतंत्र से बुरा होगा। लाखों चीनियों की हत्याओं पर खड़ा माओवाद, स्टालिनवाद का चेहरा तो अमानवीय नहीं, वीभत्स भी है। चीन ही नहीं पूरी दुनिया इस विचार से पल्ला झाड़ चुकी है। ऐसे हिंसक और अमानवीय विचारों के लिए भारतीय जमीन पर कोई जगह नहीं है, यह माओवादी समर्थकों को मान लेना चाहिए। नई दुनिया में लोकतंत्र सबसे लोकप्रिय विचार है और इसके दोषों को दूर करते हुए हमें एक नया भारत बनाने की ओर बढ़ना होगा।
आतंकवाद और माओवाद को अलग करेः
  यह कहा जा रहा है कि आतंकवाद और माओवाद दोनों एक हैं। इसे अलग करके देखने की जरूरत है। वैश्विक आतंकवाद के मुहाने पर तो हम हैं किंतु माओवाद एक आंतरिक समस्या है, जिससे जरा सी सावधानी से निपटा जा सकता है। माओवाद से आप सुशासन और भ्रष्टाचार पर थोड़ी लगाम लगाकर निपट सकते हैं किंतु वैश्विक आतंकवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और उनके इरादे अलग हैं। हमें यह मानना ही होगा अब समय आ गया है कि हम माओवादी के खूनी पंजे से अलग नहीं हुए तो यह हमारे लोकतंत्र को खा जाएगा। रेड कारीडोर बनाकर खून की होली खेल रहे माओवादियों के खिलाफ हमने यह निर्णायक जंग आज प्रारंभ न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Monday, May 27, 2013

मौला! हमें भी कर्मा जी जैसी हिम्मत बख्शे (श्रद्धांजली)

संस्मरण

खामोश हुयी माओवाद के खिलाफ आखिरी आवाज

मौला! हमें भी कर्मा जी जैसी हिम्मत बख्शे
महेंद्र कर्मा
 
-संजय द्विवेदी
 
   बस्तर में माओवादी आतंकवाद के खिलाफ महेंद्र कर्मा सही मायने में आखिरी आवाज थे। वे आदिवासियों की अस्मिता, उनके स्वाभिमान और उनकी पहचान के प्रतीक थे। भाजपा दिग्गज बलिराम कश्यप के निधन के बाद महेंद्र कर्मा का चले जाना जो शून्य बना रहा है, उसे कोई आसानी से भर नहीं पाएगा।
  कर्मा यूं ही बस्तर टाइगर नहीं कहे जाते थे। उनका स्वभाव और समझौते न करने की उनकी वृत्ति ने उन्हें यह नाम दिलाया था। माओवादियों की इस अकेले आदमी से नफरत का अंदाजा आप इस बात से  लगा सकते हैं कि उन वहशियों ने कर्मा जी के शरीर पर छप्पन गोलियां दागीं, उनके शरीर को बुरी तरह चोटिल किया और वहां डांस भी किया। कल्पना करें यह काम भारतीय राज्य की पुलिस ने किया होता तो मानवाधिकारवादियों का गिरोह इस घटना पर कैसी हाय-तौबा मचाता। किंतु नहीं, बस्तर के इस वीर के लिए उनके पास सहानुभूति के शब्द भी नहीं हैं, वे यहां भी किंतु-परंतु कर रहे हैं। टीवी पर बोलते हुए ये माओवादी समर्थक बुद्धिजीवी और तथाकथित संभ्रात लोग इस घटना को जस्टीफाई कर रहे हैं।
    महेंद्र कर्मा सच में बस्तर के सपूत थे। एक आदिवासी परिवार से आए कर्मा ने कम समय में ही समाज जीवन में जो जगह बनाई उसके लिए लोग तरसेंगें। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों की विशाल सेना भी इस निहत्थे आदमी से डरती थी। इसलिए वे आत्मसमर्पण करने के बावजूद मारे जाते हैं। क्योंकि माओवादियों को पता है कि महेंद्र कर्मा मौत से डरने और भागने वाले इंसानों में नहीं थे। बस्तर से निर्दलीय सांसद का चुनाव जीतकर उन्होंने बता दिया था कि वे वास्तव में बस्तर के लोगों के दिल में रहते हैं। सांसद,विधायक,राज्य सरकार में मंत्री का पद हो या नेता प्रतिपक्ष का पद उनके व्यक्तित्व के आगे सब छोटे थे। कर्मा अपने सपनों के लिए और अपनों के लिए जीने वाले नेता थे।
  सलवा जूडूम के माध्यम से उन्होंने जो काम प्रारंभ किया था वह काम भले कुछ शिकायतों के चलते बंद हो गया और सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देनी पड़ी, पर जब युद्ध चल रहा हो तो लड़ाई सामान्य हथियारों से नहीं लड़ी जाती। उस समय उन्हें जो उपयोगी लगा उन्होंने किया। हिंसा के खिलाफ हिंसा, सिद्धांतः गलत है पर सामने जब दानवों की सेना खड़ी हो, जहरीले नाग खड़े हों जो भारतीय समाज और लोकतंत्र के शत्रु हों, उनसे लड़ाई लड़ने के लिए कौन से हथियार चाहिए, इसे शायद कर्मा जी ही जानते थे। अपनी शहादत से एक बार फिर उन्होंने यह साबित किया है कि माओवादियों से संवाद और बातचीत के भ्रम में सरकारें पड़ी रहीं, तो वे यूं ही निर्दोषों का खून बहाते रहेंगें।  
  कर्मा जानते थे कि माओवादियों के विरोध की दो ही कीमत है एक तो वे चुनाव हार जाएंगें और दूसरे एक दिन जान से मारे जाएंगें। आसन्न मौत देखकर भी कर्मा माओवादियों से कहते हैं मैं हूं महेंद्र कर्मा मुझे मारो, मेरे साथियों को छोड़ दो। आखिर यह साहस कहां से आता है? टीवी कैमरों  के सामने  बैठकर बडी-बड़ी बातें करने से, बौद्धिक विमर्शों से, कथित जनक्रांति की बातें करने से- नहीं, नहीं, यह हिम्मत आती है अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार होने और अपने सच के लिए प्रतिबद्ध रहने से। कर्मा जी ने पिछले चुनाव के पहले अपने अनेक साक्षात्कारों में पत्रकारों से कहा था मैं चुनाव हारूं या जीतूं नक्सलियों से लड़ता रहूंगा। समय ने इसे सच साबित किया वे दंतेवाड़ा से वे हार गए , भाजपा के प्रत्याशी भीमा मंडावी जीते, कम्युनिस्ट उम्मीदवार मनीष कुंजाम दूसरे और कर्मा तीसरे स्थान पर रहे। छत्तीसगढ़ की सरकार और नौकरशाही सलवा जूडूम बंद होने के बाद अपने-अपने काम में लग गयी। लेकिन कर्मा अपने सच और अपने इरादों के साथ जीने वाले व्यक्ति थे। माओवादी भी यह बात जानते थे कि कर्मा जैसे लोग जब तक जिएंगें आदिवासियों के बीच माओवाद कभी स्वीकार्य विचार नहीं बन पाएगा।
   सीपीएम काडर के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू करने वाले कर्मा अगर कांग्रेस के झंडे तले आते हैं तो वह उनके बदलते वैचारिक रूझानों का भी प्रकटीकरण है। वे अपने दल और उसकी छत्तीसगढ़ में बनी सरकार के पहले मुख्यमंत्री के भी बहुत प्रिय नहीं रहे, क्योंकि रीढ़ वाला आदमी राजनीति में कहां स्वीकार्य है। कर्मा अपनी पार्टी की नाराजगियां झेलकर भी अपने रास्ते चलते रहे। वे जानते थे कि राजनीतिक समाधान और राजनीतिक सक्रियता से ही बस्तर को माओवादियों के आंतक से मुक्त कराया जा सकता है। कर्मा जी के साथ मुझे काम करने और पत्रकार होने के नाते संवाद करने का कई बार मौका मिला। जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ में रहते हुए उन पर दिल से टीवी कार्यक्रम बनाते समय लंबी बातचीत का मौका मिला। वे वास्तव में एक देसी आदमी थे, जिसे राजनीति की बहुत चालाकियां नहीं आती थीं। वे सीधी राह चलने वाले साफ-गो इंसान थे। ऐसा इंसान ही अपने लोगों का दर्द उनके ही शब्दों में ही व्यक्त कर सकता है। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उन्होंने छत्तीसगढ़ की सरकार का लगातार नक्सलवाद के सवाल पर साथ दिया। सरकार को लगातार दिशा दी और सलवा जूडूम में उनके साथ खड़े रहे, किंतु नौकरशाही और सरकार की सीमाएं प्रकट हैं। कर्मा की साफ मंशाओं के बावजूद जिस तरह के षडयंत्र हुए वे सबको पता हैं।
   पतित राजनीति, भ्रष्ट नौकरशाही, लाचार सुरक्षाबल जिनके हाथ बंधें हों -कुछ करने की स्थिति बनने कहां देते हैं? दूसरी तरफ चतुर, चालाक, एकजुट,समर्पित और कुटिल माओवादी और उनके वैचारिक समर्थक थे। जाहिर है कर्माजी उनसे कहां पार पाते। एक ऐसे आदमी से जो चुनाव हार गया था, जिसके प्रवर्तित सलवा जूडूम पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी, जिसके अपने राजनीतिक दल कांग्रेस में भी उसकी बहुत सुनवाई नहीं थी-ऐसे आदमी से भी अगर माओवादी कांप रहे थे, तो यह मानना पड़ेगा कि तमाम बारूदी सुरंगों, विदेशी हथियारों और राकेट लांचर पर कर्माजी की अकेली आवाज भारी थी। माओवादियों ने कर्माजी के साथ जो किया वह सिवा कायरता, नीचता और अमानवीयता के क्या है, किंतु कर्मा के बारे में आपको इतना तो कहना पड़ेगा कि वह शेर था और शेर की तरह जिया। उसने अपनी जिंदगी और मौत दोनों एक बहादुर की तरह चुनी। हमारे जैसे उनके जानने वालों को इस बात का गर्व है कि हमने कर्मा को देखा था। किस्सों में हमने जान हथेली पर रखकर देश के लिए कुर्बानियां देने वाले पढ़े और सुने हैं। किंतु ऐसे एक बहादुर को हमने अपनी आंखों देखा है, उससे बात की है- कर्मा जी के जाने के बाद हमारे पास नम आंखें हैं, दुआ है कि मौला हमें भी कर्मा जी जैसी जिंदगी और हिम्मत बख्शे।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

नंदकुमार पटेलः तुमको न भूल पाएंगे


संस्मरण

नंदकुमार पटेलः तुमको न भूल पाएंगे
 
              -संजय द्विवेदी

    अभी कुछ ही दिन तो हुए रायपुर गए हुए। श्री नंदकुमार पटेल के शंकर नगर स्थित बंगले पर उनसे मुलाकात हुयी। बहुत खुश थे वे। बेटे की शादी की खुशी। उन्होंने कहा आना है आपको। मैंने उन्हें अपनी पत्रिका मीडिया विमर्श का सिनेमा अंक दिया। उन्होंने पूछा कैसे इतना काम कर लेते हो यार। मैंने कहा आप जैसे नेताओं से तो कम ही करता हूं। नाश्ता कराया। साथ में मेरे साथी पत्रकार बबलू तिवारी भी थे।
  श्री नंदकुमार पटेल से मेरा रिश्ता तब बना जब वे छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री थे। एक किसान परिवार से आने के नाते सहजता और सरलता ऐसी कि कोई भी मुरीद हो जाए। खरसिया विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार भारी अंतर से वे यूं ही नहीं जीतते थे।भरोसा नहीं होता कि इतनी जल्दी सब कुछ बदल जाएगा। एक हंसता-खेलता आदमी, जिस पर भरोसा कर कांग्रेस ने अपने बिखरे परिवार को एक करने की जिम्मेदारी दी, उसने अपनी कोशिशें भी शुरू कीं। छत्तीसगढ़ में पस्त पड़ी कांग्रेस के संगठन में हलचल होनी शुरू हुयी और शनिवार को खबर आयी कि नंदकुमार पटेल जी का अपहरण हो गया।
   रविवार सुबह मेरे दोस्तों का फोन आया कि उनका शव मिला है। बर्बर नक्सली हिंसा के वे भी शिकार हुए। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष और मप्र तथा छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री रहे नंदकुमार पटेल और उनके बेटे श्री दिनेश पटेल की शहादत मेरे लिए बेहद निजी क्षति है। उन दिनों मैं बिलासपुर के दैनिक भास्कर अखबार में नौकरी करता था। तीन साल मुंबई रहकर लौटा था। छत्तीसगढ़ में अपने पुराने रिश्तों को रिचार्ज कर रहा था। उसी दौर में पटेलजी से मुलाकात हुयी। गृहमंत्री थे राज्य के। पहले मप्र में भी गृहमंत्री रह चुके थे। अपने व्यवहार से उन्होंने कभी यह नहीं जताया कि वे एक बड़ी कुर्सी पर हैं। वे जब रायगढ़ या खरसिया जा रहे होते तो हम उनसे मिलते। रायपुर जाते तो उनके बंगले पर भी जाते। उनकी गर्मजोशी कभी कम नहीं होती। इस बीच हमने बिलासपुर में अपनी किताब इस सूचना समर में के विमोचन का कार्यक्रम बनाया। पुस्तक का लोकार्पण महामंडलेश्वर स्वामी शारदानंद सरस्वती को करना था। कुछ अन्य अतिथियों को भी बुलाने की सोची। राजनीतिक क्षेत्र से एक ही नाम ध्यान में आया नंदकुमार पटेल का। शायद इसलिए कि हमें भरोसा था कि वे कहेंगें तो आएंगें। स्वदेश के संपादक राजेंद्र शर्मा, पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, पत्रकार-संपादक दिवाकर मुक्तिबोध आदि की मौजूदगी में यह आयोजन हुआ। उसके बाद उनसे रिश्ता और प्रगाढ़ होता गया। वे खुद भी फोन लगाकर कुछ पूछ लेते खबरों के बारे में। खासकर जब उनकी पार्टी विपक्ष में आयी तब विधानसभा में सवाल उठाने के लिए कई बार मुद्दों पर चर्चा करते। उन्हें अपने से छोटों से विमर्श करने में गुरेज नहीं था। माटी की महक उनके साथ थी।
  इस बीच मुझे रायपुर शिफ्ट होना पड़ा। कई नौकरियां छोड़ी- पकड़ीं। जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ में रहे तो दिल से नाम का एक टीवी शो हम हर हफ्ते करते थे। मौके पर जाकर ही शूट करते थे। थोड़ा अनौपचारिक सा शो था। नेताओं की रीयल लाइफ दिखाते थे। थोड़ी हार्डकोर बात भी करते थे। उसके लिए अनेक दिग्गजों पर कार्यक्रम बनाए। खरसिया गए तो स्व.लखीराम जी अग्रवाल पर कार्यक्रम बनाया, वहीं पास में नंदकुमार पटेल जी का गांव है नंदेली। उनसे पूछा तो कहा आ जाओ तुम्हारा घर है। उन पर भी उसी दिन प्रोग्राम शूट किया। हां, साथ में श्री रविकांत मित्तल भी थे, जो इन दिनों आजतक के कार्यकारी संपादक हैं।
    नंदेली में उनके परिजनों से भेंट हुयी। उनकी बेहद सरल धर्मपत्नी से भी बात हुयी। सोचता हूं तो आंखें भर आती हैं। एक साथ पति और बेटे की शहादत से उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी। एक हंसता-खेलता परिवार कैसे बिखर जाता है। नक्सली आतंकवाद के पैरोकार बुद्धिजीवी इसे समझकर भी नहीं समझना चाहते। भोपाल आए चार साल हो गए। अब उनका भोपाल आना कम होता था। राजधानी रायपुर है और बड़ी राजधानी दिल्ली। इस बीच मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जी पत्नी का निधन हुआ। उन्हें राधोगढ़ जाना था। रायपुर से भोपाल के लिए निकले तो अपने बेटे दिनेश पटेल से मुझे कहलाया कि मैं अगर फ्री हूं तो मिल सकता हूं। मैं अपने सहयोगी-मित्र प्रदीप डहेरिया के साथ उनसे मिला। वही सहजता, भरोसा और अपनापन। फिर कहा कहां यार, छत्तीसगढ़ छोड़ दिया आपने। आप जैसे लोगों की जरूरत है राज्य में। मैंने कहा कि मप्र भी आपका पुराना राज्य और भोपाल आपकी पुरानी राजधानी है। यहां भी आपके चाहने वाले होने चाहिए। वे मुस्कराकर रह गए। कोई जवाब नहीं दिया। मेरी पत्रिका मीडिया विमर्श को उलटते रहे जिसमें उनका एक चित्र पत्रिका पढ़ते हुए एक मैगजीन के ब्रांडिग एड के साथ लगा था।
   इसी महीने मेरी उनसे फोन पर लंबी बात हुयी। मैं बिलासपुर के दिग्गज कांग्रेसी नेता बीआर यादव पर एक पुस्तक का संपादन कर रहा हूं। बीआर यादव छत्तीसगढ़ के बड़े नेताओं में हैं, लंबे अरसे तक मप्र सरकार में मंत्री रहे। नंदकुमार पटेल से उनके व्यक्तिगत रिश्ते थे। पटेल जी परिवर्तन यात्रा में व्यस्त थे। मैंने कहा किताब तैयार है- आपका लेख चाहिए। बोले मैं आपको लिखवा देता हूं, कल सुबह आठ बजे फोन करिएगा। सुबह साढ़े आठ बजे उन्हें फोन लगाया वे नंदेली में थे। पूरी बात की, मुझे पूरा समय देकर नोट्स दिए। उनका शायद यह आखिरी लेख होगा। जो जल्दी ही बीआर यादव पर केंद्रित पुस्तक कर्मपथ में प्रकाशित होगा। वे इस योजना को लेकर उत्साहित थे कहा कि आप अच्छा काम रहे हैं, हम लोग डाक्युमेंटेशन में पीछे रह जाते हैं। चलिए इस बहाने यादव जी और उस दौर की राजनीति पर एक अच्छी किताब पढ़ने को मिलेगी। साथ ही यह भी कहा कि जब भी बिलासपुर में कार्यक्रम रखें मुझे जरूर बताएं। यादव जी हमारे नेता रहे हैं, उनके कार्यक्रम में मुझे आना है। मैंने कहा आप तो पार्टी के अध्यक्ष हैं, मेरे जवाब पर वे मुस्करा दिए। लेकिन सोचा हुआ सब कहां संभव होता है।
   अभी पिछले सप्ताह 19 मई,2013 को उन्होंने अपने छोटे बेटे की शादी का उत्सव किया और फिर निकल पड़े अपने राजनीतिक मिशन पर। क्या पता था कि मौत उनके इतने करीब खड़ी है। उनका न होना एक शून्य रच रहा है जिसे भर पाना संभव नहीं है। उनका अपना परिवार और वह परिवार जिसको उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से खड़ा किया था दोनों के लिए यह दुख की घड़ी है। उनकी स्मृतियां हमारा संबल हैं, उम्मीद की जानी चाहिए कि नंदकुमार पटेल की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी और माओवादी आतंक का नरभक्षी खेल खत्म होगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

Thursday, May 23, 2013

साज़ गया आवाज शेष है...

स्मरण:
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
 सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.

उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.

उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.

साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.

साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी  की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.

साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहार-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जद है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहा, पर-पीड़ा कहता अश्रु चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नखॊनेन से चट्टानों पर, कुआँ  खोद पानी की प्यास-  
आम आदमी के आँसू की कथा हमेश याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके अपना अनाम रहा

आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने: 
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है

ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है

ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है

लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है

न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है

कहो साँपों से बचकर भाग जाएं

यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
 *
गजल 

 तन्हा न अपने आप को अब पाइये जनाब,
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।

ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।

मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।

Wednesday, May 22, 2013

संवेदनओं के विविध धरातलः ‘रातरानी’ नाटक के विशेष संदर्भ में


आलेख
संवेदनओं के विविध धरातलः रातरानी नाटक के विशेष संदर्भ में

* डी॰ राजेन्द्र बाबू 
संवेदना क्या है?
      संवेदन या संवेदना शब्द का उद्भव संस्कृत भाषा से हुआ है । यानि इसका मूल रूप संस्कृत   है । इसका शाब्दिक अर्थ होता है - प्रत्यक्ष ज्ञान । इसका व्यापक अर्थ है - जानकरी, तीव्र अनुभूति, भोगना, अनुभूति देना, आत्मसमर्पण करना इत्यादि । ख्यतिप्राप्त नामलिंगानुशासन अमरकोश संवेदना शब्द का अर्थ सम्यक ज्ञान देता है । उसमें स्पष्ट किया गया है कि यह शब्द सुख दुखादि अनुभवों की संज्ञा है। संवेदना का उपसर्ग रहित वेदना शब्द दुखानुभूति का पर्यायवाची शब्द है ।
     संवेदना के लिये अंग्रेजी में  सेंसिबिलिटि शब्द का प्रयोग भी होता है ।  मानक हिंदी-अंग्रेजी कोश में इसका विस्तार से अर्थ विश्लेषण किया गया है ग्राह्यता, इंद्रिय ग्राह्यता, एहसास, बंधन हीनता, भावात्म प्रतीकों के प्रति विशेष निर्बंधता, अनुभूति शीलता आदि ।
     चिंतामणि के कर्ता आचार्य रामचंद्र शुक्लजी ने अपने भावों और मनोविकारों की विसतृत चिंतन में व्यक्तत किया है कि मूल अनुभूतियाँ दो ही हैं - सुख और दुख  वे लिखते हैं "सुख और दुख की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा इत्यदि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करता है ।   शुक्लजी के ये विचार यह व्यक्त करता है कि सुख-दुखात्मक मूल  अनुभूतियों से ही संवेदनाओं के विभिन्न धरातल रूपायित होते हैं । यह अनुभूति जितनी गहरी और दृढ होती है उतनी ही गहरी संवेदनाओं भी होती है । तब संवेदना के स्वरूप को लेकर निष्कर्ष यह निकाल जा सकता है कि स्थयी भावों की - मूल अनुभूतियों की - साधारणीकृत होने युक्त स्थिति को ही संवेदना शब्द से अभिहित किया जा सकता है ।
संवेदना के विविध क्षेत्र
      विभिन्न अनुभूतियों से संबद्ध इस मानवीय संवेदना के विभिन्न धरातल होते हैं। संवेदना के विभिन्न धरातलों का वर्गीकरन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है।  पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, यौन विष्यक, प्रेम विषयक इत्यादि |

डॉ. लक्ष्मिनारयण लाल के रात रानी नाटक में संवेदना के विविध धरातल
      समकालीन संवेदनओं को प्रस्तुत करनेवाले नटककरों में डॉ.लक्ष्मिनारयण लाल  का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है । उन्होंने अपने नाटकों में पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक एवं अनैतिक पक्ष को उजागर करते हुए नटक लिखे हैं । यहाँ हम उनके बहुचर्चित नाटक रातरानी में संवेदनाओं के धरातल पर विचार करें ।

रातरानी
     इस नटाक की कथावस्तु संपन्न वर्गीय पारिवरिक वातावरण से संबंधित है ।  जयदेव संपन्न परिवार का है जो एक प्रेस का मालिक है । जयदेव की पत्नी कुंतल मध्य वर्ग की है । कुंतल के पिता स्थानीय वातावरण में प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति थे । उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह अपने एक मित्र इंजिनीयर के पुत्र जयदेव से किया । जयदेव के पिताजी ने पचहत्तर रुपये की कमाई अपने पुत्र के नाम बैंक में रख छोड़ी   है । इस नाटक के केंद्र पात्र जयदेव और उसकी पत्नी कुंतल है । जयदेव शुद्ध अर्थवादी है । धन पर उनका अधिक ध्यान है । धन कमाने के लिये उसने अपने घर का खर्च तक काट रखे हैं । प्रेस के मज़दूरों को बोनस न देकर उन्होंने उस बचत को अपनी सुख-सुविधाओं के लिए लगा दिया है । प्रेस के मज़दूर हडताल करने से प्रेस बंद हो जाता है ।
     जयदेव का सारा समय होटल में और ताश खेलने में व्यतीत होता है ।  उसकी पत्नी कुंतल का जीवन जयदेव के जीवन से बिलकुल भिन्न हैं । वह अपने को घर की देवी मानती है । वह अपना सारा समय घर के काम काज में बिताती है । उसका एक फुलवारी है । जिसमें उसने अपना मन पूर्ण रूप से लगा दिया है । प्रेस के मज़दूरों से कुंतल की बड़ी सहानुभूति है । जयदेव से छिपकर वह मज़दूरों की सहायता करती है ।
     अर्थलाभ की दृष्टि से जयदेव अपनी पत्नी को नौकरी के लिए प्रेरित करती है । कुंतल को पहले एक यूनिवर्सिटी में संगीत अध्यपिका का पद प्राप्त होता है । लेकिन जल्दी ही उस नौकरी से इस्तीफा दे-देकर वह एक महिला विश्वविद्यलय की नौकरी स्वीकार करती है ।
     होटल का भोजन, शराब और ताश खेल में जयदेव अपने बैंक की रकम पचहतर हजार रुपए उड़ा देता  है ।  अंत में ताश के खेल के मुनाफ़े के बीस रुपए तक देने में जयदेव असमर्थ हो निकलता है । कुंतल अपने वेतन से बीस रुपए प्रकाश को देकर कर्ज अदा करती है । इतने में प्रेस के मज़दूरों के स्ट्राइक को समाप्त करने के लिए, उन्हें बोनस देने केलिए, कुंतल बडी कोशिश करती है । वह अपने गहने बेचकर मज़दूरों की माँग को पूरी कर देना चाहती है | वह अकेली विद्रोही मज़दूरों के बीच जाती है तो विद्रोहियों का जुलूस शांत हो जाता है
वैयाक्तिक धरातल :
      संवेदन के वैयक्तिक धरातल के अनेक पहलू होते हैं ।
स्त्री-पुरुष संबंध
     डॉ. लाल ने पच्चीस से अधिक नाटक लिखे हैं । उनमें से अधिकांश नाटकों  का मुख्य विषय स्त्री-पुरुष संबंध है । स्त्री और पुरुष दो स्वतंत्र इकाई हैं । दोनों का पृथक और स्वतंत्र अस्तित्व है । स्त्री - पुरुष मिलन प्रकृति के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है । सृष्टि की पूर्णता के लिए स्त्री-पुरुष के बीच समर्पण और पारस्परिक विलय होना है । लेकिन सच तो यह है कि इस समर्पित मिलन में दोनों अपने व्यक्तित्व पर विलय नहीं कर पाते । क्योंकि दोनों वस्तुत: स्वतंत्र इकाई  है । इसका फल होता है संघर्ष । यह संघर्ष सनातन है ।
       रातरानी नाटक में भी डॉ. लाल स्त्री-पुरुष के तनाओं से बरी दाम्पत्य जीवन की कथा कहते हैं । जयदेव ओर कुंतल के दृष्टिकोणों में अंतर होने के कारण उनका दाम्पत्य जीवन तनावपूर्ण  है । लेकिन कुंतल का प्रेम यथार्थ प्रेम है । उसमें शंका की कोई गुंजाइश नहीं है । एक बार हडतालियों का जुलूस जयदेव के घर की ओर आता देखकर कुंतल उन्हें समझाने के लिये दौड़ पड़ती है। बीच में वह गिरकर घायल होती है । फिर भी वह खुशी से कहती है _ "चोट सिर्फ मेरे माथे पर ही है और केसर का फूल (सुहाग) मेरे आँचल में बंधा   है" ।
      जयदेव और कुंतल के बीच दूंदू प्ररंभ होता है , दोनों के इस वार्तालाप से
 कुंतल  : लो ये रुपए । हर चीज़ को तुम रुपए में  आँकते हो ।
जयदेव : (रुपया पोकट में रखता हुआ ) यह अर्थयुग (एकनॉमिक एज)
    यही मूल बीज है, दूंदू का जो शनै: शनै: विकसित होता है । जयदेव नारी के दो रूप देखना चाहते हैं - पत्नी और संपत्ति दायिनी लक्ष्मी । इसे पत्नी के भी दो अलग - अलग रूपों की आकांक्षा है - "घर में एक बाहर दूसरा " ।
     कुंतल पात्र द्वारा डॉ. लाल इस तत्व का उद्घाटन करना चाहते हैं कि घर को बनए रखने में स्त्री का बहुत बल है, पत्नी घर रूपी बगीचे की रातरानी है जो अपने स्नेह से पति के जीवन में सुख - सुरथि, संतोष और तृप्ती का झरना प्रवाहित कर देता है ।

निष्कर्ष
       संवेदना व्यक्ति मन की उपज है। यह देश-काल-समय और व्यक्तिविशेष के अनुसार बद्लती रहेगी ।  एक ही घटना पर विभिन्न मानसिक अवस्था रखनेवाले व्यक्तियों की संवेदना और उसकी प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग होंगी । अर्थित संवेदना का किसी निश्चित रूप या भाव तल नहीं होता।

 * डी॰ राजेन्द्र बाबू  कर्पगम विश्वविद्यालयकोयम्बत्तूर, तमिलनाडु में डॉ. के.पी. पद्मावति अम्माल के निर्देशन में शोधरत हैं ।