Wednesday, November 1, 2017

प्रकाश स्तंभ जैसी किताब -इंद्रेश कुमार

पुस्तक समीक्षा

प्रकाश स्तंभ जैसी किताब
-इंद्रेश कुमार


लेखनी विचारों को स्थायित्व प्रदान करती है। इस मार्ग से ज्ञान जन साधारण के मन में घर कर लेता है। अच्छा और बुरा दोनों समान रूप से समाज व मनुष्य के सामने आता रहता है और उसके जीवन में घटता भी रहता है। दोनों में से ही सीखने को मिलता है, आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। परंतु निर्भर करता है सीखने वाले के दृष्टिकोण पर ‘आधा गिलास ख़ाली कि आधा गिलास भरा’, ‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोई’। अच्छे में से तो अच्छा सीखने को मिलता ही है, परंतु बुरे में से भी अच्छा सीखना बहुत कठिन है। प्रस्तुत पुस्तक ‘गंगा जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ जब समाज में जाति, पंथ, दल, भाषा के नाम पर द्वेष फैल रहा हो, सभ्यताओं के नाम पर टकराव बढ रहा हो, संसाधनों पर क़ब्ज़े की ख़ूनी स्पर्धा हो, ऐसे समय पर प्रकाश स्तंभ के रूप में समाधान का मार्ग दिखाने का अच्छा प्रयास है।

इस्लाम में पांच दीनी फ़र्ज़ बताए गए हैं-(1) तौहीद, (2) नमाज़, (3) रोज़ा, (4) ज़कात और (5) हज। परंतु इसी के साथ-साथ एक और भी अत्यंत सुंदर नसीहत दी गई है ‘हुब्बुल वतनी निफसुल ईमान’ अर्थात् वतन (राष्ट्र) से प्यार करना, उसकी रक्षा करना एवं उसके विकास और भाईचारे के लिए काम करना, यह उसका फर्ज़ है। इस संदेश के अनुसार मुसलमान को दोनों यानि मज़हबी एवं वतनी फ़र्ज़ में खरा उतरना चाहिए। हज के लिए मक्का शरीफ़ जाएंगे, परंतु ज़िंदाबाद सऊदी अरब, ईरान, सूडान की नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की बोलेंगे। सर झुकेगा हिंदुस्तान पर, कटेगा भी हिंदुस्तान के लिए।

इसी प्रकार से इस्लाम में अन्य अनेक महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं जैसे ‘लकुम दीनुकुम बलियदीन’ अर्थात् तेरा दीन तेरा, मेरा दीन मेरा, एक-दूसरे के दीन में दख़ल नहीं देंगे, एक-दूसरे के दीन की इज़्ज़त करेंगे। सर्वपंथ समभाव यानी समन्वय यानी आपसी बंधुत्व का बहुत ही ख़ूबसूरत मार्ग है। इसीलिए ऊपरवाले को ‘रब-उल-आलमीन’ कहा गया है न कि ‘रब-उल-मुसलमीन’। उसका सांझा नाम ‘ऊपरवाला’ है। संपूर्ण विश्व के सभी पंथों के लोग हाथ व नज़र ऊपर उठाकर प्रार्थना (दुआ) करते हैं। ‘ऊपरवाले’ को अपनी-अपनी मातृभाषा में पुकारना यानी याद करना। वह तो अंतर्यामी है। वह तो सभी भाषाएं एवं बोलियां जानता है। वह तो गूंगे की, पत्थर की, कीट-पतंग की भी सुनता है, जो कि आदमी (मनुष्य) नहीं जानता है। अंग्रेज़ी-लेटिन में उसे God, अरबी में अल्लाह, तुर्की में तारक, फ़ारसी में ख़ुदा, उर्दू में रब, गुरुमुखी में वाहे गुरु, हिंदी-संस्कृत-असमिया-मणिपुरी-कश्मीरी-तमिल-गुजराती-बंगला-मराठी-नेपाली-भोजपुरी-अवधी आदि में भी पुकारते हैं भगवान, ईश्वर, परमात्मा, प्रभु आदि। ऊपरवाला एक है, नाम अनेक हैं। गंतव्य व मंतव्य एक है, मार्ग व पंथ अनेक हैं। भारतीय संस्कृति का यही पावन संदेश है। अरबी भाषा में ‘अल्लाह-हु-अकबर’ को अंग्रेज़ी में God is Great, हिन्दी में ‘भगवान (ईश्वर) महान है’ कहेंगे। इसी प्रकार से संस्कृत के ‘वंदे मातरम्’ को अंग्रेज़ी में Salute to Motherland और उर्दू में मादरे-वतन ज़िंदाबाद कहेंगे। इसी प्रकार से अरबी में ‘ला इलाह इल्लल्लाह’ को संस्कृत में ‘खल्विंदम इदम सर्व ब्रह्म’ एवं हिंदी में कहेंगे प्रभु सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है और वह एक ही है, उर्दू में कहेंगे कि ख़ुदा ही सब कुछ है, ख़ुदा से ही सब कुछ है।

हज़रत मुहम्मद साहब ने बुलंद आवाज़ में कहा है कि मेरे से पूर्व ख़ुदा ने एक लाख 24 हज़ार पैग़म्बर भेजे हैं। वे अलग-अलग समय पर, अलग-अलग प्रकार के हालात में, अलग-अलग धरती (देश) पर आए हैं। उनकी उम्मतें भी हैं, किताबें भी हैं। अनेक उम्मतें आज भी हैं। इस हदीस की रौशनी में एक प्रश्न खड़ा होता है कि वे कौन हैं? कु़रान शरीफ़ में 25 पैग़म्बरों का वर्णन मिलता है, जिसमें से दो पैग़म्बर ‘आदम और नूह’ भारत आए हैं, जिन्हें पहला एवं जल महाप्रलय वाला मनु कहा व माना जाता है। मुसलमान उम्मत तो पैग़म्बर साहब की हैं, परंतु प्रत्येक पैग़म्बर का सम्मान करना सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़ बनता है। इसलिए गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

अर्थात् जब-जब मानवता (धर्म) नष्ट होती है, दुष्टों के अत्याचार बढते हैं, तब मैं समय-समय पर धर्म (सज्जनता) की स्थापना हेतु आता हूं।

एक बात स्वयं रसूल साहब कहते हैं कि मुझे पूर्व से यानी हिमालय से यानी हिंदुस्तान से ठंडी हवाएं आती हैं, यानी सुकून (शांति) मिलता है। भारत में भारतीय संस्कृति व इस्लाम के जीवन मूल्यों को अपनी ज़िंदगी में उतारकर कट्टरता एवं विदेशी बादशाहों से जूझने वाले संतों व फ़क़ीरों की एक लंबी श्रृंखला है, जो मानवता एवं राष्ट्रीयता का पावन संदेश देते रहे हैं। बहुत दिनों से इच्छा थी कि ऐसे श्रेष्ठ भारतीय मुस्लिम विद्वानों की वाणी एवं जीवन समाज के सामने आए, ताकि आतंक, मज़हबी कट्टरता, नफ़रत, अपराध, अनपढ़ता आदि बुराइयों एवं कमियों से मुस्लिम समाज बाहर निकलकर सच्ची राष्ट्रीयता के मार्ग पर तेज़ गति व दृढ़ता से आगे बढ़ सके। कहते हैं ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’। इन संतों व फ़क़ीरों ने तो राम व कृष्ण को केंद्र मान सच्ची इंसानियत की राह दिखाई है। किसी शायर ने कहा है-
मुश्किलें हैं, मुश्किलों से घबराना क्या
दीवारों में ही तो दरवाज़े निकाले जाते हैं

शेख़ नज़ीर ने तो दरगाह और मंदिर के बीच खड़े होकर कहा-
जब आंखों में हो ख़ुदाई, तो पत्थर भी ख़ुदा नज़र आया
जब आंखें ही पथराईं, तो ख़ुदा भी पत्थर नज़र आया

इस नेक, ख़ुशबू एवं ख़ूबसूरती भरे काम को पूर्ण करने के लिए मेरे सामने थी मेरी छोटी बहन एवं बेटी सरीखी फ़िरदौस ख़ान। जब मैंने अपनी इच्छा व्यक्त की, तो उसने कहा कि भैया यह तो ऊपरवाले ने आपके द्वारा नेक बनो और नेक करो का हुकुम दिया है, मैं इस कार्य को अवश्य संपन्न करूंगी। ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ पुस्तक में ऐसे ही 55 संतों व फ़क़ीरों की वाणी एवं जीवन प्रकाशित किया गया है। लेखिका चिन्तक है, सुधारवादी है, परिश्रमी है, निर्भय होकर सच्चाई के नेक मार्ग पर चलने की हिम्मत रखती है। विभिन्न समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में नानाविध विषयों पर उसके लेख छपते रहते हैं। ज़िंदगी में यह पुस्तक लेखिका को एवं समाज को ठीक मिशन के साथ मंज़िल की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी। सफ़लताओं की शुभकामनाओं के साथ मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा उस पर उसकी कृपा सदैव बरसती रहे।

भारत के ऋषि, मुनियों अर्थात् वैज्ञानिकों एवं विद्वानों ने वैश्विक स्तर पर बंधुत्व बना रहे इसके लिए हंजारों, लाखों वर्ष पूर्व एक सिध्दांत यानि सूत्र दिया गया था ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यानि World is one family यानी ‘विश्व एक परिवार है’। परिवार का भाव एवं व्यवहार ही अधिकतम समस्याओं के समाधान का उपाय है। भारत वर्ष में समय-समय पर अनेक पंथ (मत) जन्मते रहे और आज भी जन्म रहे हैं। इन सब पंथों के मानने वालों का एक-दूसरे पंथ में आवागमन कभी भी टकराव एवं देश के प्रति, पूर्वजों के प्रति अश्रध्दा का विषय नहीं बना। जब इस्लाम जो कि भारत के बाहर से आया और धीरे-धीरे भारी संख्या में भारतीय समाज अलग-अलग कारणों से इस्लाम में आ गया, तो कुछ बादशाहों एवं कट्टरपंथियों द्वारा इस आड़ में अरबी साम्राज्य के विस्तार को भारत में स्थापित करने के प्रयत्न भी किए जाने लगे, जबकि सत्य यह है कि 99 प्रतिशत मुस्लिमों के पूर्वज हिंदू ही हैं। उन्होंने मज़हब बदला है न कि देश एवं पूर्वज और न ही उनसे विरासत में मिली संस्कृति (तहज़ीब) बदली है। इसलिए भारत के प्राय: सभी मुस्लिम एवं हिंदुओं के पुरखे सांझे हैं यानी समान पूर्वजों की संतति है। इसी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को भारत में एक और नया नाम मिला ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’। गंगा और यमुना दोनों नदियां भारतीय एवं भारतीयता का प्रतीक हैं, इनका मिलन पवित्र संगम कहलाता है, जहां नफ़रत, द्वेष, कट्टरता, हिंसा, विदेशियत नष्ट हो जाती है। मन एवं बुद्धि को शांति, बंधुत्व, शील, ममता, पवित्रता से ओत-प्रोत करती है। आज हिंदुस्तान के अधिकांश लोग इसी जीवन को जी ना चाहते हैं। ख़ुशहाल एवं शक्तिशाली हिंदुस्तान बनाना व देखना चाहते हैं।

मुझे विश्वास है कि प्रकाश स्तंभ जैसी यह पुस्तक ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ सभी देशवासियों को इस सच्ची राह पर चलने की हिम्मत प्रदान करेगी।

(लेखक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक हैं। साथ ही हिमालय परिवार, राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलन, भारत तिब्बत सहयोग मंच, समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मंच आदि के मार्गदर्शक एवं संयोजक हैं)


किताब का नाम : गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत
लेखिका : फ़िरदौस ख़ान
पेज : 172
क़ीमत : 200 रुपये

प्रकाशक
ज्ञान गंगा (प्रभात प्रकाशन समूह)
205 -सी, चावड़ी बाज़ार
दिल्ली-110006

प्रभात प्रकाशन
 4/19, आसफ़ अली रोड
दरियागंज
नई दिल्ली-110002
फ़ोन : 011 2328 9555

Tuesday, October 31, 2017

​​संस्मरण : अभी मन भरा नहीं - अवनीश सिंह चौहान

​​संस्मरण : 
अभी मन भरा नहीं 
- अवनीश सिंह चौहान 

सुविख्यात साहित्यकार श्रद्देय देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी (गाज़ियाबाद) से कई बार फोन पर बात होती— कभी अंग्रेजी में, कभी हिन्दी में, कभी ब्रज भाषा में। बात-बात में वह कहते कि ब्रज भाषा में भी मुझसे बतियाया करो, अच्छा लगता है, आगरा से हूँ न इसलिए। उनसे अपनी बोली-बानी में बतियाना बहुत अच्छा लगता। बहुभाषी विद्वान, आचार्य इन्द्र जी भी खूब रस लेते, ठहाके लगाते, आशीष देते, और बड़े प्यार से पूछते— कब आओगे? हर बार बस एक ही जवाब— अवश्य आऊँगा, आपके दर्शन करने। बरसों बीत गए। कभी जाना ही नहीं हो पाया, पर बात होती रही।

इधर पिछले दो-तीन वर्ष से मेरे प्रिय मित्र रमाकांत जी (रायबरेली, उ.प्र.) का आग्रह रहा कि कैसे भी हो इन्द्र जी से मिलना है। उन्हें करीब से देखना है, जानना-समझना है। पिछली बार जब वह मेरे पास दिल्ली आये, तब भी सोचा कि मिल लिया जाय। किन्तु, पता चला कि वह बहुत अस्वस्थ हैं, सो मिलना नहीं हो सका। एक कारण और भी। मेरे अग्रज गीतकार जगदीश पंकज जी जब भी मुरादाबाद आते, मुझसे सम्पर्क अवश्य करते। उनसे मुरादाबाद में कई बार मिलना हुआ, उठना-बैठना हुआ। फोन से भी संवाद चलता रहा। उन्होंने भी कई बार घर (साहिबाबाद) आने के लिए आमंत्रित किया। प्रेमयुक्त आमंत्रण। सोचा जाना ही होगा। जब इच्छा प्रबल हो और संकल्प पवित्र, तब सब अच्छा ही होता है। 30 अक्टूबर 2017, दिन रविवार को भी यही हुआ।

सुखद संयोग, कई वर्ष बाद ही सही, कि रायबरेली से प्रिय साहित्यकार रमाकान्त जी का शनिवार को दिल्ली आना हुआ; कारण— हंस पत्रिका द्वारा आयोजित 'राजेन्द्र यादव स्मृति समारोह' में सहभागिता करना। बात हुई कि हम दोनों कार्यक्रम स्थल (त्रिवेणी कला संगम, तानसेन मार्ग, मंडी हाउस, नई दिल्ली) पर मिलेंगे। मिले भी। कार्यक्रम के उपरांत मैं उन्हें अपने फ्लैट पर ले आया। विचार हुआ कि कल श्रद्धेय इन्द्र जी का दर्शन कर लिया जाय और इसी बहाने गाज़ियाबाद के अन्य साहित्यकार मित्रों से भी मुलाकात हो जाएगी। सुबह-सुबह (रविवार को) जगदीश पंकज जी से फोन पर संपर्क किया, मिलने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी और साधिकार कहा कि दोपहर का भोजन साथ-साथ करना है।

फिर क्या था हम जा पहुंचे उनके घर। सेक्टर-दो, राजेंद्रनगर। समय- लगभग 12 बजे, दोपहर। स्वागत-सत्कार हुआ। मन गदगद। अग्रज गीतकार संजय शुक्ल जी भी आ गए। हम सभी लगे बतियाने। देश-दुनिया की बातें— जाति, धर्म, राजनीति, साहित्य पर मंथन; यारी-दोस्ती, संपादक, सम्पादकीय की चर्चा; दिल्ली, लखनऊ, इलाहबाद, पटना, भोपाल, कानपुर पर गपशप। बीच-बीच में कहकहे। सब कुछ आनंदमय। वार्ता के दौरान दो-तीन बार पंकज जी का फोन घनघनाया। वरिष्ठ गीतकार कृष्ण भारतीय जी एवं साहित्यकार गीता पंडित जी के फोन थे। पंकज जी ने उन्हें अवगत कराया कि रमाकांत और अवनीश उनके यहाँ पधारे हैं। नमस्कार विनिमय हुआ। पंकज जी ने भारतीय जी से बात भी करवायी। पता चला कि भारतीय जी की सहधर्मिणी का निधन हो गया, सुनकर बड़ा कष्ट हुआ, हमने सुख-दुःख बाँटे। रमाकांत जी ने भी उन्हें सांत्वना दी। रमाकांत जी ने फोन पंकज जी को दे दिया। भारतीय जी ने पंकज जी से आग्रह किया कि उनकी पुस्तक हमें दे दी जाय। भारतीय जी की ओर से शुभकामनाएं लिखकर पंकज जी ने उनका सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह 'हैं जटायु से अपाहिज हम' मुझे और रमाकांत जी को सप्रेम भैंट किया; संजय शुक्ल जी ने भी अपना गीत संग्रह 'फटे पाँवोँ में महावर' उपहारस्वरुप प्रदान किया। पंकज जी से न रहा गया, बोले कि एक फोटो हो जाय। सहयोग और सहभागिता के लिए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी जी को बुलाया और दोनों सदगृहस्थों ने बड़ी आत्मीयता से हम सबका फोटो खींचा।
तीन बजने वाले थे। बिना देर किये  देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' जी के यहाँ पहुंचना था, क्योंकि उन्हें विद्वान लेखक ब्रजकिशोर वर्मा 'शैदी' जी की 'नौ पुस्तकों' के लोकार्पण समारोह में 4 बजे जाना था। सो निकल पड़े। ई-रिक्शा से। 5-7 मिनट में पहुँच गए, उनके घर। विवेकानंद नगर। दर्शन किये। अभिभूत, स्पंदित। लगभग 84 वर्षीय युवा इंद्र जी। गज़ब मुस्कान, खिलखिलाहट, जीवंतता- ऐसी कि मन मोह ले। उनकी दो-तीन बातें तो अब भी मेरे मन में हिलोरे मार रही हैं। वह बोले, 'मुझे ठीक से कुर्ता पहना दो, सजा दो, फोटो जो खिंचवानी है'; 'क्यों हनुमान (जगदीश पंकज जी), स्वर्गवाहिनी का इंतज़ाम हुआ कि नहीं?' (कार्यक्रम में जाने के लिए कैब बुकिंग के सन्दर्भ में); 'अवनीश, फिर आना, अभी मन भरा नहीं।' बड़े भाग हमारे जो उनसे मिलना हुआ। वह भी मिले तो ऐसे जैसे वर्षों से मिलना-जुलना रहा हो हमारा। क्या कहने! समय कम था, फिर भी, हमारी मुलाकात सार्थक और आनंदमय रही। ​जय-जय।


# प्रेम नगर, लाइन पार, मझोला
मुरादाबाद (उ.प्र.)-244001 
9456011560 

Wednesday, October 25, 2017

बाल कविता

बाल कविता .













डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प
" भौंरा "
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गुन-गुन करता आता भौंरा ,
मीठी तान सुनाता भौंरा ।
फूलों के सम्मुख जा-जाकर,
अपना रंग जमाता भौंरा ।।

फूलों का रस पी-पीकर ।
मन ही मन मुस्काता भौंरा ।।

पराग चुसनें में जो माहिर ।
लोभी वह कहलाता भौंरा ।।



" अजब सलोना गाँव "
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अजब सलोना,सबसे प्यारा,
गाँव हमारा भाई ।
मस्त मगन हो पक्षी नभ में ,
उड़ रहे हैं भाई ।।

हरी घास है मखमल जैसी,
चहुँ दिशा में हरियाली ।
चहक रही है डाल-डाल पर,
कोयल काली-काली ।।

               

            " श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन "
               तमनार/पड़ीगाँव-रायगढ़(छ.ग.)
ई-मेल:-Pramodpushp10@gmail. com

Tuesday, October 24, 2017

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य

आलेख

विमर्शों के आलोक में शिवमूर्ति का साहित्य
-         रहीम मियाँ

      साहित्य का लक्ष्य ही है वंचित समाज को स्वर प्रदान करना और मानवीय धरातल पर स्थापित करना। इन्हीं वंचितों में एक है स्त्री, किसान और दलितों का समाज। अपने प्राप्य से दरकिनार यह समाज सदा से सृजन की स्रोत सामग्री रही है, स्त्री हो, दलित हो या किसान, ये आज भी हाशिए की श्रेणी में है, पर इनकी दिशा पहले जैसी निरिह नहीं रही है। आर्थिक, राजनीतिक और संवैधानिक अधिकारों के बावजूद किन्हीं मामलों में अंतर्विरोध से भी ग्रसित है। इन्हीं बहुआयामी अग्रगति के साथ इनके अंतर्विरोध आज विमर्शों का नया आख्यान ही रच रहा है।
      शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के कथाकार है तो प्रेमचन्द, रेणू, नागार्जुन जैसे कथाकार ग्राम्य बोध के जनक। इस धरातल पर यह अनिवार्यत विचारणीय ठहरता है कि शिवमूर्ति के पूर्व कथाजगत में जो ग्रामीण जीवन रहा, वहीं तक भारत का गाँव टीका न रहकर वर्तमान भूमंडलीय परिदृश्य में नित नये - नये रुपों को ग्रहण करता रहा है। किसान न तो किसानी में गर्व का अनुभव कर रहा है, न स्त्री अधिकांश में प्रेमचन्दीय आदर्शों को ढ़ो रही है और रही बात दलित की तो आज दलित सद्गति या ठाकुर का कुँआ की भाँति विवश नहीं है, बल्कि आरक्षण की नीति के आधार पर सवर्णों को भी विवश किए हुए है।
शिवमूर्ति के कथा साहित्य का केन्द्र स्त्री, दलित और किसान रहे हैं। ये तीनों किसी न किसी रुप में हजारों वर्षों से समाज में हाशिए पर रहे हैं। स्त्री को एक ओर जहाँ पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया वहीं सदा से वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से शोषित एवं पीड़ित होती रही है। दलित विमर्श और आरक्षण नीति के बावजूद आज भी दलित अपने अस्तित्व एवं अधिकार की लड़ाई लड़ रही है। भारत की आत्मा गाँव में बसने के बावजूद किसानों की स्थिति बद से बदतर है। ऐसे हाशिए पर फेंके गए वर्ग की आवाज बनते हैं शिवमूर्ति, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से स्त्री, दलित एवं किसानी जीवन के यथार्थ एवं मर्म को समाज के लोगों के बीच लाकर प्रस्तुत कर दिया है।
शिवमूर्ति के नारी पात्र न्याय के लिए लड़ते हैं, भले न्याय न मिले, किन्तु वे संघर्षशील है, सत्ता को चुनौती देती है। अकालदण्ड की सुरजी हो, केशर कस्तुरी की केशर, कसाईबाड़ा की शनिचरी हो या तिरिया चरित्तर की विमली।तिरिया चरित्र कहानी में शिवमूर्ति ने दलित वर्ग की स्त्री का कारुणिक चित्रण पेश किया है। कहानी का पात्र विमली पुरुषों के बीच जाकर ईट भट्टे में काम करती है तो केवल अपने माँ – बाप के भरण-पोषण के लिए। उसे अपने ही ससुर द्वारा बलात्कार की पीड़ा झेलनी पड़ती है। ससुर द्वारा विमली पर ही लांछन लगाया जाता है और विमली को पंचायत की क्रूरता झेलनी पड़ती है। एक बात गौर करने की है कि प्रेमचन्द के पंचपरमेश्वर में जहाँ पंच की महीमा दिखाई गई है, वहीं गोदान तक आते – आते प्रेमचन्द का पंच से मोहभंग हो जाता है और वही पंच शिवमूर्ति के यहाँ आते-आते पहले से अधिक क्रूर और आततायी हो चुका है। यह पंच विमली को निरपराध दाग देता है, पर इसका विरोध विमली अवश्य करती है – मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सत्त नहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ – आ-क-थू। देखूँ कौन माई का लाल दगनी दागता है।  कुच्ची का कानून कहानी में कुच्ची, विमली की तरह पराश्त नहीं होती है। वह पंचायत के सामने अपनी माँ बनने की अधिकार रक्षा में सफल होती है। कुच्ची बदलते समय में बदलते समाज की  सोच की उद्घोषणा करती नजर आती है। पितृसत्ता के विरोध में मातृसत्ता को स्थापित करने की माँग करती है। उसका यह सवाल ध्यातव्य है – कोख मेरी है तो इसपर हक किसका होगा। शिवमूर्ति ने कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर से बाहर पंचायत में लाकर एक नये अधिकार एवं विमर्श को हवा दी है। बिना पति के माँ बनने की बात पर जब सास द्वारा शंका व्यक्त की जाती है तब वह कहती है – किसी का नाम धरना जरुरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?“ वह पंचों के स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती है और स्पष्ट घोषणा करती है – कुंती माई डर गयी, अंजनी माई डर गयी, सीता की माई डर गयी, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।
शिवमूर्ति के स्त्री पात्र पढ़े-लिखे एवं शहरी नहीं है, वे ग्रामीण है, दलित है, किन्तु अन्याय के खिलाफ लड़ने की चेतना से पूर्ण। ये दलित वर्ग की वे स्त्रियाँ है जो हजारों वर्षों से पितृसत्ता के शोषण की शिकार होती आई है, पर अब ये स्त्रियाँ प्रतिरोध करने लगी है। अकालदण्ड में सुरजी हँसिये से सेक्रेटरी के देह का नाजुक हिस्सा काटकर अलग कर देती है - अन्दर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग – धरंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हासिए से उसकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अंधेरे में गुम हो गई है। तर्पण में मिस्त्री बहु ललकारती है – ‘’पकड़ – पकड़ भागने न पाये। पोतवा पकड़ कर ऐंठ दे। हमेशा – हमेशा का ग्रह कट जाय।‘’
बनाना रिपब्लिक दलित राजनीति और उसके उभार की कहानी है। जग्गू द्वारा लेखक ने यह दिखा दिया है कि अब दलितों का राजनीतिकरण हो चुका है। ठाकुर द्वारा दलित को कठपुतली बनाकर सत्ता पाने का कुचक्र अब नहीं चलेगा। जग्गू के चुनाव जीतने पर जुलूस का ठाकुर के घर की तरफ न जाना, ठाकुर द्वारा स्वयं जग्गू के जुलूस में माला लेकर पहुँचना और किसी के कहने पर – जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर, ठाकुर का कमरिया लचकाकर नाचना बदलते समय का यथार्थ है। यह कहानी कफन के आगे का यथार्थ है। कफन से आगे बढ़कर दलित चेतना का क्रांतिकारी
विस्फोट है। घिसु, माधव का कफन के पैसे से शराब पीकर नशे में गिरना दलित समाज की नियति थी तो जग्गू का चुनाव जीतकर ठाकुर को नचाना आज की नियति। ठाकुर द्वारा यह कहना – ‘’अगर पानी पीने से साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊ’’, ठाकुर के कुँआ का अगला विकास है, जहाँ जोखू को गंदा और बदबूदार पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वहीं बनाना रिपब्लिक में ठाकुर को दलितों के साथ के लिए मजबूर होना पड़  रहा है। कहानी के अंत में ठाकुर के पंजे में पंजा फसाँकर  नाचने वाले दलित बच्चे घिसु-माधव की तरह नशे में धत्त होकर नाचने वाले बच्चे नहीं है बल्कि पंजे से पंजा मिलाकर सीधे वर्ग-संघर्ष करने वाले बच्चे है। तर्पण उपन्यास में दलित झूठ बोलना सीख चुके हैं। यहाँ दलित बलात्कार किए जाने की झूठी रिपोर्ट लिखवाते हैं। वे जान गये हैं कि झूठ बोलकर ही सवर्णों ने दलितों पर हजारों वर्षों तक शोषण किया –  केवल एक झूठ बोलकर कि वे बह्रमा के मुँह से पैदा हुए और हम पैर से, वे हजार साल से हमसे अपना पैर पुजवाते आ रहे हैं। अब एक झूठ बोलने का हमारा दाँव आया है तो हमारे गले में क्यों अटक रहा है। तर्पण के दलित पात्र अपने शोषण का सवर्णों से हिंसक बदला लेने लगे है। चन्दर की नाक क्या कटी सवर्णों की मानो इज्जत उतर गई। जहाँ सवर्ण चमारों से बदला लेना चाहते हैं वहीं चमार भी कट्टे, बम लेकर मुकाबले के लिए तैयार हो जाते हैं। पियारे को अपने मुन्ना पर गर्व होता है कि जो काम इतने वर्षों में वह नहीं कर पाया उसका बेटा कर देता है – कब से जोर जुल्म सह रही है उसकी जाति। पीढ़िया गुजर गई सहते – सहते। कोई माई का लाल न पैदा हुआ मुँहा – मुँही जवाब देने वाला। और आज उसके बेटे ने ऐसा कर दिखाया तो छिपे – छिपे घुमने का क्या मतलब? यह तो दुनिया जहान में डंका पीटकर बताने वाला काम है। लेकिन नाक क्यों काटा? सीधे मूँड़ ही क्यों नहीं काट लिया। मुन्ना का जुर्म पियारे अपने सर ले लेता है और वकील के समझाने पर कहता है – ‘’नहीं वकील साहब। मुझे जेल जाना है। जेल की रोटी खाकर पराश्चित करना है। इस पाप का पराश्चित कि कान-पूँछ दबाकर इतने दिनों तक उन लोगों का जोर - जुल्म सहता रह गया।‘’ पियारे मानो सारे दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वह जेल नहीं मानो तमाम दलितों का, उनके पुरखों का तर्पण करने जा रहा है। पुलिस के पूछने पर कि कब से प्लान कर रहा था मारने की। वह कहता है – बहुत दिन से सरकार। जब से इसने मेरी बेटी की राह रोकी बल्कि और पहले – पचीसों – पचासों साल पहले। जब से इन लोगों का जोर – जुल्म देखा। एक  युग से या कहिये पिछले जन्म से सरकार। पियारे का यह जवाब तमाम दलित वर्ग के अन्दर कई वर्षों से दबे बदले की आग है, यह सदियों का संताप है जो आज दृढ़तापूर्वक बाहर निकल आया।
आज किसानों की गति और गंतव्य दोनों बदले है। प्रेमचन्द का किसान साहुकारों, जमींदारों द्वारा शोषित था तो आज का किसान सरकारी नीतियों द्वारा शोषित है। कॉरपोरेट बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज के भार तले दबे, कुचले किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है। आखिरी छलाँग का किसान प्रेमचन्द के किसान की तरह दब्बू एवं कमजोर नहीं है। वह पहलवान है। उसका अट्टाहास दूर तक गूँजता है। अच्छी फसल के लिए कई बार उसे ईनाम मिल चुका है। विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते है – ‘’पहलवान होरी से ज्यादा सजग, खाते – पीते प्रबुद्ध और इज्जतदार बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के किसान – खेतिहर है।‘’  पूँजीवादी व्यवस्था धीरे – धीरे किसानों को लील रहा है। बुलेट ट्रेन, रेलवे कॉरिडार, एक्सप्रेस वे एवं कई योजनाओं के नाम पर किसानों की जमीनें हड़पी जा रही है। अतः आज का किसानी जीवन प्रेमचन्द के समय जैसा एकरेखिय नहीं रह गया है। आज किसान खेती को घाटे का काम मानता है। जहाँ सवा सेर गेहूँ का शंकर साधु को भोजन कराकर मोक्ष पाने के लिए कर्ज लेता है और सवा सेर गेहूँ का कर्ज न उतार पाने के कारण अपनी खेत गिरवी रख देता है, वहीं आखिरी छलाँग का किसान पहलवान अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए खेत बेचना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि गड्ढ़े से खोदी गई मिट्टी उस गड्ढ़े को भरने में पूरी नहीं पड़ती।

संदर्भ – ग्रंथ
1.      
  1.                                  1.         मंच - पत्रिका – शिवमूर्ति विशेषांक – जनवरी-मार्च, 2011.
2.       लमही -  ‘’               ‘’             ‘’          - अक्टूबर-दिसम्बर, 2012 .        
3.       संवेद -      ‘’                ‘’            ‘’    - फरवरी-अप्रैल, 2014.
4.       इंडिया इन्साइड – ‘’ ‘’            ‘’     - 2016.
5.       त्रिशुल – उपन्यास – शिवमूर्ति।
6.       तर्पण –   ‘’                        ‘’
7.       आखिरी छलाँग – ‘’           ‘’
8.       कसाईबाड़ा – कहानी – शिवमूर्ति।
9.       केसर कस्तुरी – ‘’                ‘’
10.   तिरिया चरित्र – ‘’                 ‘’
11.   सिरी उपमा जोग – ‘’           ‘’
12.   भारत नाट्यम –     ‘’             ‘’
13.   ख्वाजा ओ मेरे पीर – ‘’       ‘’
14.   बनाना रिपब्लिक –     ‘’         ‘’
15.   कुच्ची का कानून -     ‘’       ‘’
***

सहायक आचार्य,
बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज
बानारहाट, जलपाईगुडी, पश्चिम बंगाल,
पिन- 735203, फोन- 9832636020.


बाल कविताएँ ...... - डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "

बाल कविताएँ ......




 - डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "

" सूरज भैया "
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नित्य सवेरे उठकर कहती,
राजू को उसकी मैया ।
पूरब में देखो तो राजू ,
आये हैं सूरज भैया ।।1।।

लो सूरज की किरण परी भी ,
चहुं दिशा को हरषाई ।
पानी में देखो सूरज की ,
चमक रही है परछाई ।।2।।


" प्यारे वृक्ष "
  ---------------

प्यारे-प्यारे वृक्ष हमारे ,
सबके मन को भाते हैं ।
शुद्ध हवा देकर ये हमको,
जग की सेवा करते हैं ।।1।।

पास बुला बादल भैया को,
वर्षा खूब कराते हैं ।
शान बढ़ाते हैं धरती की ,
शीतल छाया देते हैं ।।2।।


" मेरा परिवार "
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मेरा छोटा सा परिवार ,
इससे हम करते हैं प्यार ।
मम्मी-पाप, सोनू -भैया ,
करते मुझसे प्यार दुलार ।।1।।

मम्मी-पापा से कहता है ,
मेरा प्यारा भैया सोनू ।
हरपल मोनू मुझे सताती ,
करो फैसला तो मैं जानूँ।।2।।

नहीं तो भाई कह देता हूँ ,
खट्टी कह दूँगा इस बार ।
मेरा छोटा सा परिवार ,
इससे हम करते हैं प्यार ।।3।।

            
 डॉ.प्रमोद सोनवानी " पुष्प "
             संपादक- " वनाँचल सृजन "

             "श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन"
             तमनार/पड़ीगाँव-रायगढ़(छ.ग.)
              भारत , पिन:- 496107
ई-मेल :- Pramodpushp10@gmail. com

बाल कविता .. "चलो मंगल ग्रह में "

बाल  कविता ..

"चलो मंगल ग्रह में "
   

 -डॉ.प्रमोद सोनवानी पुष्प

हम भी भेज दिये हैं बच्चों ,
मंगल ग्रह को यह संदेश ।
सकल जहाँ से कम नहीं है,
अपना प्यारा भारत देश ।।1।।


मंगल ग्रह के राजा को हम,
देश का हाल सुनायेंगे ।
देश कैसे बढ़ेगा आगे ,
सबक यही सीख आयेंगे ।।2।।


मंगल वाले दुनियाँ का सच,
चहुँ ओर बगरायेंगे ।
चलो-चलें जी मंगल ग्रह में,
हम सबको समझायेंगे ।।3।।


यहाँ बढ़ रही है जनसंख्या,
चलो वहाँ सब जायेंगे ।
मंगल ग्रह की नगरी में हम,
गीत ख़ुशी के गायेंगे ।।4।।

            
             संपादक- " वनाँचल सृजन "
           " श्री फूलेंद्र साहित्य निकेतन "
             तमनार,पड़ीगाँव -रायगढ़(छ.ग.)
               भारत, पिन- 496107
ई-मेल:-Pramodpushp10@gmail. com